Bhagavad Geeta Chapter 18 in hindi

Moksh Sanyas Yog in hindi

अर्जुन उवाचसन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌ ।त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ৷৷18.1৷৷arjuna uvācasaṅnyāsasya mahābāhō tattvamicchāmi vēditum.tyāgasya ca hṛṣīkēśa pṛthakkēśiniṣūdana৷৷18.1৷৷भावार्थ : अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्‌! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्‌-पृथक्‌ जानना चाहता हूँ ৷৷18.1॥


श्रीभगवानुवाचकाम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ৷৷18.1৷৷śrī bhagavānuvācakāmyānāṅ karmaṇāṅ nyāsaṅ saṅnyāsaṅ kavayō viduḥ.sarvakarmaphalatyāgaṅ prāhustyāgaṅ vicakṣaṇāḥ৷৷18.2৷৷

भावार्थ : श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।)

त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का त्याग है) त्याग कहते हैं ৷৷18.2॥


त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ৷৷18.2৷৷tyājyaṅ dōṣavadityēkē karma prāhurmanīṣiṇaḥ.yajñadānatapaḥkarma na tyājyamiti cāparē৷৷18.3৷৷

भावार्थ : कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं ৷৷18.3॥


निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ৷৷18.4৷৷niścayaṅ śrṛṇu mē tatra tyāgē bharatasattama.tyāgō hi puruṣavyāghra trividhaḥ saṅprakīrtitaḥ৷৷18.4৷৷भावार्थ : हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ৷৷18.4॥


यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌ ।यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌ ৷৷18.5৷৷yajñadānatapaḥkarma na tyājyaṅ kāryamēva tat.yajñō dānaṅ tapaścaiva pāvanāni manīṣiṇām৷৷18.5৷৷

भावार्थ : यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है।) पवित्र करने वाले हैं ৷৷18.5॥


एतान्यपि तु कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा फलानि च ।कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्‌ ৷৷18.6৷৷ētānyapi tu karmāṇi saṅgaṅ tyaktvā phalāni ca.kartavyānīti mē pārtha niśicataṅ matamuttamam৷৷18.6৷৷

भावार्थ : इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ৷৷18.6॥


नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ৷৷18.7৷৷niyatasya tu saṅnyāsaḥ karmaṇō nōpapadyatē.mōhāttasya parityāgastāmasaḥ parikīrtitaḥ৷৷18.7৷৷

भावार्थ : (निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का (इसी अध्याय के श्लोक 48 की टिप्पणी में इसका अर्थ देखना चाहिए।) स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है ৷৷18.7॥

Moksh Sanyas Yog in hindi chapter 18


दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्‌ ।स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्‌ ৷৷18.8৷৷duḥkhamityēva yatkarma kāyaklēśabhayāttyajēt.sa kṛtvā rājasaṅ tyāgaṅ naiva tyāgaphalaṅ labhēt৷৷18.8৷৷

भावार्थ : जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता ৷৷18.8॥


कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।सङ्‍गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ৷৷18.9৷৷kāryamityēva yatkarma niyataṅ kriyatē.rjuna.saṅgaṅ tyaktvā phalaṅ caiva sa tyāgaḥ sāttvikō mataḥ৷৷18.9৷৷भावार्थ : हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है ৷৷18.9॥


न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ৷৷18.10৷৷na dvēṣṭyakuśalaṅ karma kuśalē nānuṣajjatē.tyāgī sattvasamāviṣṭō mēdhāvī chinnasaṅśayaḥ৷৷18.10৷৷भावार्थ : जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है ৷৷18.10॥