आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
ग़ालिब
World class shayari
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता
निदा फ़ाज़ली
ख़ुद अपनी मस्ती है…
ख़ुद अपनी मस्ती है जिस ने मचाई है हलचल
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल
आरिफ़ जलाली
एक खून के रंग ने रंग नहीं बदला
सारे रिश्ते इस जहां के बेरंग हो गए हैं
ठंड की रात भी कम्बल ओढ़ रही थी चांदनी का कुहरे के साए में
ये चांद की मोहब्बत थी जो पाकीज़ा बनकर धरती पर उतरी थी
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
मिर्ज़ा ग़ालिब
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
मिर्ज़ा ग़ालिब
बेहतरीन शायरी
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
जिगर मुरादाबादी
उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते
बशीर बद्र
हमारे जीने का अलग अंदाज़ है
एक आंख में आंसू और दूसरे में ख़्वाब है
सर्द रातों में आसान सफ़र लगता है
यह मेरी मां की दुआओं का असर लगता है
दुश्वार काम था ग़म को समेटना
मैं ख़ुद को बांधने में कई बार खुल गया
तजुर्बा कहता है मोब्बत से किनारा कर लूं
इश्क कहता है कि ये तजुर्बा दोबारा कर लूं
वो भी रो देगा उसे हाल सुनाएं कैसे
मोम का घर है चराग़ों को जलाएं कैसे
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
फ़राज़
..
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
यूं तो हमने घूम लिया सारा जहां
लेकिन तेरी गली की बात ही कुछ और है
हमदर्दी न करो मुझसे ऐ मेरे हमदर्द दोस्तों
वो भी हमदर्द था दर्द हजारों दे गया बेचारा
यूं तो फरिश्तों ने भी फ़रिश्ते का साथ छोड़ दिया
अजीब इतेफाक था उसको भी ‘इश्क़’ हुआ था।