अकबर इलाहाबादी के शेर | Akbar allahabadi shayari

हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है

बी.ए भी पास हों मिले बी-बी भी दिल-पसंद
मेहनत की है वो बात ये क़िस्मत की बात है

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ

हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं

इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम
वस्ल का दिल से मिरे अरमान रुख़्सत हो गया

जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर
मुसलमानी में ताक़त ख़ून ही बहने से आती है

मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं

पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा
लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए

जो कहा मैं ने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर
हँस के कहने लगा और आप को आता क्या है

रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
हम याद-ए-ख़ुदा करते हैं कर ले न ख़ुदा याद

अकबर दबे नहीं किसी सुल्ताँ की फ़ौज से
लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से

मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट
इल्मी मुबाहिसे हों ज़रा पास आ के लेट

लिपट भी जा न रुक ‘अकबर’ गज़ब की ब्यूटी है
नहीं नहीं पे न जा ये हया की ड्यूटी है

गज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गए
मैं लेटा तो उठ के खड़े हो गए

धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का
चंदा वसूल होता है साहब दबाव से

हक़ीक़ी और मजाज़ी शायरी में फ़र्क़ ये पाया
कि वो जामे से बाहर है ये पाजामे से बाहर है

कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया
जब कोई तक़रीर की जलसे में लीडर बन गया

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता

अकबर दबे नहीं किसी सुल्ताँ की फ़ौज से
लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से

कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
याँ धरा क्या है ब-जुज़ अकबर के और अमरूद के

पूछा ‘अकबर’ है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं

बुत-कदे में शोर है ‘अकबर’ मुसलमाँ हो गया
बे-वफ़ाओं से कोई कह दे कि हाँ हाँ हो गया

पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले ‘अकबर’
पढ़ कर जो कोई फूँक दे अप्रैल मई जून

तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है ‘अकबर’
अहबाब करें बज़्म में अब वाह कहाँ तक

वस्ल हो या फ़िराक़ हो ‘अकबर’
जागना रात भर मुसीबत है

इस गुलिस्ताँ में बहुत कलियाँ मुझे तड़पा गईं
क्यूँ लगी थीं शाख़ में क्यूँ बे-खिले मुरझा गईं

ज़रूरी चीज़ है इक तजरबा भी ज़िंदगानी में
तुझे ये डिग्रियाँ बूढ़ों का हम-सिन कर नहीं सकतीं

यहाँ की औरतों को इल्म की परवा नहीं बे-शक
मगर ये शौहरों से अपने बे-परवा नहीं होतीं

शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है

अकबर इलाहाबादी
लीडरों की धूम है और फॉलोवर कोई नहीं
सब तो जेनरेल हैं यहाँ आख़िर सिपाही कौन है

हक़ीक़ी और मजाज़ी शायरी में फ़र्क़ ये पाया
कि वो जामे से बाहर है ये पाजामे से बाहर है

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ

इलाही कैसी कैसी सूरतें तू ने बनाई हैं
कि हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

अकबर इलाहाबादी
असर ये तेरे अन्फ़ास-ए-मसीहाई का है ‘अकबर’
इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुँचा

हुए इस क़दर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह न देखा
कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर

रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
हम याद-ए-ख़ुदा करते हैं कर ले न ख़ुदा याद

ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
मगर अंधेरे उजाले में चूकता भी नहीं

अकबर इलाहाबादी
मिरा मोहताज होना तो मिरी हालत से ज़ाहिर है
मगर हाँ देखना है आप का हाजत-रवा होना

ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता

अकबर इलाहाबादी
जब ग़म हुआ चढ़ा लीं दो बोतलें इकट्ठी
मुल्ला की दौड़ मस्जिद ‘अकबर’ की दौड़ भट्टी

अकबर इलाहाबादी
किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
कह दो बे इस के जवानी का मज़ा मिलता नहीं

अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा
जब ख़ुदा का सामना होगा तो देखा जाएगा

अकबर इलाहाबादी
कुछ नहीं कार-ए-फ़लक हादसा-पाशी के सिवा
फ़ल्सफ़ा कुछ नहीं अल्फ़ाज़-तराशी के सिवा

इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम
वस्ल का दिल से मिरे अरमान रुख़्सत हो गया

हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है

कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया
जब कोई तक़रीर की जलसे में लीडर बन गया

फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं

बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता

तुम नाक चढ़ाते हो मिरी बात पे ऐ शैख़
खींचूँगी किसी रोज़ मैं अब कान तुम्हारे

बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें
बूढ़ों को भी जो मौत न आए तो क्या करें

Akbar allahabadi ghazal in hindi | अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल

उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
नज़र उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़
तवज्जोह अपनी हो क्या फ़न्न-ए-शाइरी की तरफ़
नज़र हर एक की जाती है ऐब ही की तरफ़


लिखा हुआ है जो रोना मिरे मुक़द्दर में
ख़याल तक नहीं जाता कभी हँसी की तरफ़
तुम्हारा साया भी जो लोग देख लेते हैं
वो आँख उठा के नहीं देखते परी की तरफ़


बला में फँसता है दिल मुफ़्त जान जाती है
ख़ुदा किसी को न ले जाए उस गली की तरफ़
कभी जो होती है तकरार ग़ैर से हम से
तो दिल से होते हो दर-पर्दा तुम उसी की तरफ़


निगाह पड़ती है उन पर तमाम महफ़िल की
वो आँख उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़
निगाह उस बुत-ए-ख़ुद-बीं की है मिरे दिल पर
न आइने की तरफ़ है न आरसी की तरफ़


क़ुबूल कीजिए लिल्लाह तोहफ़ा-ए-दिल को
नज़र न कीजिए इस की शिकस्तगी की तरफ़
यही नज़र है जो अब क़ातिल-ए-ज़माना हुई
यही नज़र है कि उठती न थी किसी की तरफ़


ग़रीब-ख़ाना में लिल्लाह दो-घड़ी बैठो
बहुत दिनों में तुम आए हो इस गली की तरफ़
ज़रा सी देर ही हो जाएगी तो क्या होगा
घड़ी घड़ी न उठाओ नज़र घड़ी की तरफ़


जो घर में पूछे कोई ख़ौफ़ क्या है कह देना
चले गए थे टहलते हुए किसी की तरफ़
हज़ार जल्वा-ए-हुस्न-ए-बुताँ हो ऐ ‘अकबर’
तुम अपना ध्यान लगाए रहो उसी की तरफ़

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